Mahatma Narayan Swami
महात्मा नारायण स्वामी
श्री नारायण स्वामी जी (भूतपूर्व महात्मा नारायण प्रसाद जी आचार्य तथा मुख्याधिष्ठाता गुरुकुल वृन्दावन) यद्यपि उनका नाम आर्यसमाज के क्षेत्र में सर्वत्र सुविदित है परन्तु दूसरे पाठकों के लिए कुछ परिचय ग्रन्थकार के विषय में देना आवश्यक है।
युक्तप्रान्त में सामाजिक कार्य :- उत्तर प्रदेश (प्राचीन युक्तप्रान्त) में इस समय जो कुछ आर्यसमाज का वृक्ष फूला फला दीख रहा है उसको सींचने में श्री नारायण स्वामी जी का बहुत बड़ा हाथ है। ऋषि दयानन्द के इस प्रान्त में ऋषि के मिशन की पूर्ति के लिये जिन कतिपय सच्चे भक्तों ने अपने जीवन की आहुति दी महात्मा जी (स्वामी जी) उनमें से एक थे। आपने पिछली शताब्दी के पूरे समय में (२५ वर्ष तक) आर्यसमाज की सेवा की है। युक्त प्रान्त की आर्य प्रतिनिधि सभा के सबसे बड़े संचालकों में आप रहे हैं। सभा में अन्तरंग सभासद्, उपमन्त्री, मन्त्री, गुरकुल के अधिष्ठाता तथा आचार्य आदि अनेक पदों को सुशोभित करते हुए आपने कार्य किया है। जिस समय आप मन्त्री थे आर्य प्रतिनिधि सभा की बहुत उन्नति हुई। आप प्रायः समाजों के उत्सवों पर भी जाते थे और प्रचार की वास्तविक अवस्था का निरीक्षण करते थे। उनका मन्त्रित्व केवल कार्यालय तक ही न था।
वेद प्रचार, गुरुकुल और कॉलेज का प्रश्न :- उत्तर प्रदेश में जिस समय यह प्रश्न उठा कि पंजाब की तरह यहाँ भी डी.ए.वी. कॉलेज खोला जाये, आर्यसामाजिक नेताओं के दो दल हो गए। एक कॉलेज के पक्ष में था दूसरा वेद प्रचार और गुरुकुल के पक्ष में। महात्मा जी ने सबसे पहले प्रतिनिधि सभा में गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव उपस्थित किया। लोग अपनी अशक्ति को देखते हुए गरुकल खोलने में कुछ संकोच करते थे परन्तु जिस समय बृहदधिवेशन में गुरुकुल पक्ष में आपने अपनी ओजस्विनी वक्तृता दी तो प्रस्ताव को सबने स्वीकार किया। प्रश्न केवल धन का रह गया, उसके लिए भी महात्मा जी ने सारे प्रान्त में दौरा लगाकर स्वयं धन एकत्रित किया और उनके उद्योग का फल यह हुआ कि उस समय तो नहीं किन्तु उसके पश्चात १९०६ ई० में यू.पी. की आर्य प्रतिनिधि सभा ने सिंकदराबाद का गुरुकुल अपने हाथ में लिया।१९०७ में गुरुकुल फरुखाबाद चला गया, जहाँ वह चार साल तक अर्थात् १९११ तक रहा।
वृन्दावन गुरुकुल के आचार्य :- सन् १९११ में कतिपय कारणों से सभा ने गुरुकुल को फरुखाबाद से उठाकर वृन्दावन लाना निश्चित किया। श्रीयुत राजा महेन्द्रप्रताप ने उसके लिए भूमि (एक बाग सहित) बिना किसी शर्त के दे दी। सभा ने अक्तूबर १९११ में गुरुकुल उठाने का निश्चय किया और साथ ही यह भी निश्चय हुआ था कि दो मास के पश्चात् होने वाला गुरुकुल का अगला उत्सव भी वृन्दावन में किया जाये। इतने थोड़े समय में सारी इमारतों का बन जाना और नई गुरुकुल भूमि में उत्सव का होना केवल इसलिए सम्भव हो सका कि महात्मा जी तीन मास की छुट्टी लेकर वहाँ पहुँच गये और रात दिन परिश्रम करके उस कार्य को पूरा किया। परन्तु गुरुकुल आने के पश्चात् मुख्याधिष्ठाता पद का बोझ भी आपके कंधों पर ही रखा, क्योंकि स्वर्गीय पं० भगवानदीन जी जो उस समय मुख्याधिष्ठाता थे, बीमार होने के कारण चले गये। आपने सरकारी नौकरी से छुट्टी ले ली, परन्तु छुट्टी समाप्त होने पर यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि आप नौकरी पर जायें या गुरुकुल का काम करें। आपकी पैंशन होने में केवल एक वर्ष की कमी थी, लोगों ने बड़ा जोर देकर आपको सलाह दी कि डॉक्टर से सर्टिफिकेट (Invalid Certificate) दिलाकर पेंशन का अधिकार प्राप्त कर लीजिए। परन्तु आपने झूठा सर्टिफिकेट प्राप्त करने से इनकार कर दिया, और ऐसे समय में जब कि आपकी पेंशन के लिए केवल एक वर्ष की कमी थी, आपने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। यह घटना है जो आपके 'स्वार्थ त्याग' और 'सत्य निष्ठा' का परिचय देती है और बतलाती है कि उनके अन्दर कितना चारित्र्यबल है।
गुरुकुल वृन्दावन ने जो अपने समय उन्नत अवस्था प्राप्त की वह आपके ही पुरुषार्थ का फल है। जिस समय आपने गुरुकुल का कार्य लिया बड़ी शोचनीय दशा थी किन्तु आपने रात दिन जो अथक श्रम संभाला, वह एक विचित्र दृश्य था, उस समय के व्यवहार से पता चलता था कि गुरुकुल के ब्रह्मचारियों के लिए उनका पुत्र से बढ़कर प्रेम था और ब्रह्मचारी पिता के समान उनमें श्रद्धा रखते थे। श्री नारायणाश्रम की स्थापना :- महात्माजी ने गुरुकुल से विदा होकर नैनीताल के समीप पहाड़ के उच्च शिखर पर सुरम्य सुन्दर भूमि में अपनी कुटी श्री नारायणाश्रम' बनायी। कुटी भी एक दर्शनीय स्थान है। वह पहाड़ के घने जंगल के भीतर एक सुरम्य शान्त स्थान में पहाड़ी नदी के पास बनी हुई है। वहाँ रहकर महात्मा जी ने संन्यासाश्रम की तैयारी की और आध्यात्मिक चिन्तन तथा स्वाध्याय में एकान्त जीवन व्यतीत किया। वहीं रहते हुए इस ग्रन्थ का निर्माण किया जो अब पाठकों के आगे प्रस्तुत किया जा रहा है। यह ग्रन्थ जैसा कि पाठकों को पता चल जायेगा दीर्घकालीन स्वाध्याय का फल है।
संन्यासाश्रम और पूर्णाहुति :- सन् १९२२ जून में महात्मा जी ने संन्यासाश्रम में प्रवेश किया। संन्यास में प्रवेश करते समय आपने अपनी कुटी और सब धन जो कुछ आपके पास था उत्तर प्रदेश की आर्य प्रतिनिधि सभा को वैदिक धर्म सम्बन्धी साहित्य की उन्नति में लगाने के लिए अर्पण कर दिया। संन्यास में प्रवेश करने के पश्चात् से वे आर्यसमाजों में प्रचारार्थ जाने लगे। जहाँ आपकी कथायें होती थी, आपके प्रवचन सुनकर वहां के आर्य पुरुषों में नए जीवन और आस्तिक भावों का संचार हो जाता था। आपकी कथाएं यद्यपि आध्यात्मिक विषयों पर होती थी परन्तु लोग बड़ी प्रीति से सुनते थे।