पुस्तक सार
1. अपने भाग्य-निर्माता आप ही हैं। आप सफल या असफल होने के लिए. पूर्णतया स्वतंत्र हैं।
2. जो काम एक जीवात्मा कर सकता है, उसे दूसरा भी कर सकता है।
3. आपके विचार-वचन-व्यवहार आपके भाग्य का निर्माण करते हैं। इसलिए पहले किए गए कर्मों के अतिरिक्त,भाग्य क्या है? कुछ भी तो नहीं।
4.ईमानदार, बुद्धिमान और पुरुषार्थी व्यक्ति का भविष्य, उज्जवल है।
5. आप चाहें तो ज्ञान, बुद्धि व बल बढ़ाकर धन, मान व सहयोगियों को बढ़ा लें या फिर
आलस्य, लापरवाही, जुआ-शराब व कामचोरी से इन साधनों को खो दें. ये दोनों
विकल्पआपकेहीहाथों में हैं।
6. पूर्वकाल या पूर्व जन्म में किया गया कर्म, भाग्य है और अभी और आगे किया हुआ कर्म, पुरुषार्थ है।
7. पुरुषार्थ अच्छा तो, भविष्य भी अच्छा। पुरुषार्थ खराब तो, भाग्य भी खराब।
8. अच्छे कर्म का अच्छा फल...... बुरे कर्म का बुरा फल....... और मिश्रित कर्म का मिश्रित फल, मिलता है।
9. भविष्य को ढालने की शक्ति से सम्पन हम लोग, अपने ऐश्वर्य स्वयं रचकर, अपनी तकदीर स्वयं बनाते हैं।
10. 'कर्म में उसकाफल' 'पुरुषार्थ में उसकाभाग्य', छिपा हुआहोता है।
11. इस जन्म में किया कर्म, इस जन्म में और फल देने से बाकी रह गया कर्म, अगले जन्म में हमें फल देता है।
12. सुख की कामना करने वाले व्यक्ति को, ऐसा "व्यवहार" करना चाहिए, जिससे निश्चिततः "भाग्य" बनता है।
13. अगर समाज-पंचायत-राजा ने आपको आपके किए गए कर्म का पूरा फल नहीं दिया तो अंत में आपका बचा हुआफल, ईश्चर देगा।
14. मरते ही.... घर व घरवाले, घर पर ही रह जाते हैं, केवल पाप और पुण्य ही.... हमारे साथ में चले जाते हैं।
15. पाप का त्यागवपुण्य का अर्जन करते-करते..... अपना लोक भी सुधार लीजिए और परलोक भी।