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अथर्ववेदभाष्यम् (काण्ड 7)
Atharvavedbhashyam (Kand 7)
By : Pt. Harisharan Siddhantaalankar In : Hindiवेद सृष्टि के आदि में परमात्मा द्वारा दिया गया दिव्य, अनूठा, अनुपम ज्ञान है। वेद सार्वभौमिक और सार्वकालिक हैं। यह ज्ञान सारे संसारवासियों और मनुष्यमात्र के लिए है।
वेद चार हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।
चारों वेद चार ऋषियों के हृदय में एक-साथ प्रकट हुए। ऋषियों ने वेद की रचना नहीं की। यह ज्ञान तो परमात्मा ने अपनी करुणा और कृपा से उनके हृदय में उँडेल दिया था। ऋषि मन्त्रों के निर्माता नहीं थे, वे केवल मन्त्रों के अर्थों के साक्षात्कर्ता थे। ऋग्वेद ज्ञानकाण्ड है। यजुर्वेद कर्मकाण्ड है। सामवेद उपासनाकाण्ड है और अथर्ववेद विज्ञानकाण्ड है। भाष्यकार के शब्दों में ऋग्वेद मस्तिक का वेद है, यजुर्वेद हाथों का वेद है। सामवेद हृदय का वेद है और अथर्ववेद उदर पेट का वेद है। उदर-विकारों से ही नाना प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं। इस वेद में नाना प्रकार की ओषधियों का वर्णन करके शरीर को नीरोग, स्वस्थ और शान्त रखने के उपायों का वर्णन है।
राष्ट्र में उपद्रव और अशान्ति होने पर राष्ट्र की सुरक्षा के लिए नाना प्रकार के भयंकरतम अस्त्र और शस्त्रों का वर्णन भी इस वेद में है। इसप्रकार यह युद्ध और शान्ति का वेद है। यही इस वेद का प्रमुख विषय है।
अर्थवेद में बीस काण्ड, ७३१ सूक्त और ५९७७ मन्त्र हैं। सबसे छोटा सूक्त एक मन्त्र का है। एक-एक, दो-दो और तीन-तीन मन्त्रों के अनेक सूक्त हैं। सबसे बड़ा सूक्त ८९ मन्त्रों का है।
इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। इस वेद के अनेक सूक्तों में ब्रह्म परमेश्वर का हृदयहारी वर्णन है, जिसे पढ़ते-पढ़ते पाठक भावविभोर हो उठता है। वह अध्यात्म के सरोवर में डुबकियाँ लगाने लगता है। ऐसे कुछ सूक्त हैं-२। १; ४। २; ४। १६ आदि।
गृहस्थ के सौहार्द का जो मनोहारी वर्णन ३। ३० में किया है, उसकी छटा देखते ही बनती है। इसी प्रकार का एक सूक्त ७।६२ भी है। इन सूक्तों में वर्णित शिक्षाओं पर आचरण किया जाये तो घर निश्चय ही स्वर्ग बन जाए। चौदहवाँ काण्ड तो सारा ही दाम्पत्य सूक्त है. जिसमें पति-पत्नी के कर्त्तव्यों तथा विवाह के नियमों और गृहस्थ की मान-मर्यादाओं का उत्तम विवेचन है।
बारहवें काण्ड का प्रथम सक्त संसार का प्रथम राष्ट्रगीत है। इसमें एक आदर्श राष्ट्र और उसकी रक्षा के उपायों का सर्वाङ्गीण चित्रण हुआ है। वेद ने सारे संसार को एक सार्वभौम राज्य माना है और भूमिमाता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा दी है।
पाश्चात्यों के अनुसार अथर्ववेद जादू-टोने का वेद है। इसमें शत्रुओं के मारण, मोहन और उच्चाटन का वर्णन है। इसमें कृत्या द्वारा शत्रु-हनन के प्रयोग हैं। ये सारी धारणाएँ भ्रान्त हैं। इस भाष्य को पढ़ने से इस भ्रान्त धारणा का उन्मूलन हो जाएगा। 'ऋग्वेद पहले बना। तत्पश्चात् यजुर्वेद और सामवेद का संकलन हुआ और सबसे बाद में अथर्ववेद बना', यह विचारधारा भी आधारशून्य है। जब ऋग्वेद और यजुर्वेद में चारों वेदों के नाम दिये हुए है, तब अथर्ववेद को अथवा किसी भी वेद को बाद का बना कैसे माना जा सकता है?
पहले वेद एक था महर्षि व्यास ने इसके चार भाग किये, यह मान्यता भी थोथी है। वेद में चारों वेदों का उल्लेख है -
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥ -ऋ० १०। ९०। ९
इस मन्त्र में ऋचः ऋग्वेद, सामानि-सामवेद, छन्दांसि अथर्ववेद और यजुः यजुर्वेद चारों वेदों के नाम दिये हुए हैं।
चत्वारो वा इमे वेदा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ब्रह्मवेदः। -गोपथ० १। २। १६
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः॥ -मुण्डक० १। १। ५
इसप्रकार के अनेक प्रमाण दिये जा सकते हैं।
अथर्ववेद पर पं० क्षेमकरणदासजी त्रिवेदी, पं० जयदेवजी शर्मा विद्यालङ्कार, पं० दामोदरजी सातवलेकर, पं० विश्वनाथजी विद्यामार्तण्ड के भाष्य उपलब्ध हैं। हमारे विचार में पण्डित हरिशरणजी का भाष्य इन सबसे अनूठा है। इसे सरल तो बनाया ही गया है, परन्तु भाष्यकार ने न तो कहीं खेंचातानी की है और न ही मनमाने अर्थ किये हैं। जहाँ कोई विशेष अर्थ किया है, वहाँ प्रमाण में प्राचीन ग्रन्थों-यथा ब्राह्मणग्रन्थों, निरुक्त, उणादिकोश, निघण्टु, व्याकरण आदि के उद्धरण दिये हैं। अर्थ पढ़ते-पढ़ते भाव हृदयपटल पर अङ्कित हो जाता है। हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि पाठक इसे अपनाएँगे, रुचिपूर्वक इसका अध्ययन करेंगे और अपने जीवनों को सफल बनाएँगे। वेद प्रकाशन का गुरुतर कार्य हाथ में ले लिया है। साधन सीमित हैं। व्यय बहुत अधिक है, फिर भी पूर्ण शक्ति के साथ लगा हुआ हूँ। प्रभुकृपा से शीघ्र पूरा करने का प्रयत्न करूँगा।
विदुषामनुचरः
-जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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Title : अथर्ववेदभाष्यम् (काण्ड 7)
Sub Title : N/A
Series Title : अथर्ववेदभाष्यम्
Language : Hindi
Category :
Subject : अथर्ववेद
Author 1 : पं० हरिशरण सिद्धान्तालङ्कार
Author 2 : N/A
Translator : N/A
Editor : N/A
Commentator : N/A
Publisher : Shri Ghudmal Prahaladkumar Arya Dharmarth Nyas
Edition : N/A
Publish Year : 2009
Publish City : Hindon City
ISBN # : N/A
http://vediclibrary.in/book/atharvavedbhashyam-kand-7